Saturday, March 24, 2007

भाव -जगत

साथ ना दो पर…
संदीपन विमलकान्त नागर

साथ ना दो पर याद तो करना
सुबह-
कभी सुबह को नींद से उठकर
दुबकी हुई रज़ाई में ,
करवट लेते कुछ अलसाते
साथ ना देना ,नाम तो लेना
साथ ना दो पर ;पर नाम तो लेना ।
दोपहर-
कभी दुपहरी धूप में जलते
या बारिश संग धीमे से गलते ,
वृक्षों की मुझे छाँव समझना ,
कुछ पल को विश्राम तो करना
साथ ना दो ,पर पलभर ठहरना
शाम-
जब धीमे से शाम सिमटकर
खोने लगे बाँहों में रात की
कर शृंगार मनोहर तुम
द्वार की ओट खड़ी हो जाना
खट-खट की हर आहट को
मेरे आने का अंदेशा समझना
द्वार की ओट से झाँका करना
रात –
या रात में थककर तुम
कभी नींद के न आने पर
उठ खिड़की के पास खड़ी हो
या तकिए में मुँह को छिपाए
अपने केश छूना हौले –से
और सो जाना सपनों में
सोचकर ये स्पर्श है मेरा
साथ न दो पर अधमुँदी पलकों में मुस्काना ।
स्वप्न-
या खोई जब नींद में गुमसुम
सिमटी ही सपने बुनती ,
अपने मन में हरसिंगार फूल –सा
मेरे लिए कोई सपना चुनना
सथ ना दो पर सपना चुनना ।

00000000

Saturday, March 10, 2007

गतिविधि

गतिविधि
कु0 श्रेयसी कक्षा 2 केन्द्रीय विद्यालय ओ0 ई0 एफ़0 हज़रतपुर जि0 फ़िरोज़ाबाद ने
मून टी0 वी0 द्वारा आयोजित प्रतियोगिता ‘ताक –धिना-धिन’ में द्वितीय स्थान प्राप्त किया
तथा 27 फ़रवरी को आयोजित ताज महोत्सव में प्रतिभागिता की।

चिन्तन

तूफ़ान के डर से नैया कभी पार होती नहीं ।
हार से डरते हैं जो ,जीत उनकी होती नहीं ॥

किताबें

किताबें
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'



जीवन की मुस्कान किताबें
बहुत बडा़ वरदान किताबें।
गूँगे का मुँह बनकर बोलें
बहरे के हैं कान किताबें ।
अन्धे की आँखें बन जाएँ
ऐसी हैं दिनमान किताबें ।
हीरे मोती से भी बढ़कर
बेशकीमती खान किताबें ।
जिन के आने से मन हरषे
ऐसी हैं मेहमान किताबें ।
क्या बुरा यहाँ क्या है अच्छा
करती हैं पहचान किताबें ।
धार प्रेम की बहती इनमें
फैलाती हैं ज्ञान किताबें ।
राहों की हर मुश्किल को
कर देती आसान किताबें ।
इस धरती पर सबके ऊपर
सबसे बड़ा अहसान किताबें ।
इनसे अच्छा दोस्त न कोई
करती हैं कल्याण किताबें ।
कभी नहीं ये बूढ़ी होती
रहती सदा जवान किताबें ।

कहानी (कल्लो)

कल्लो
- ऋषि शर्मा
कल्लो शीर्षक पढ़कर पाठक शायद एक बार को चौंकें। मगर यह निश्चित है कि कहानी का केन्द्रीय पात्र कल्लो ही है। तीनों लोक से न्यारी कान्हा की नगरी मथुरा, जहॉ कृष्ण को भी कनुआ, कलुआ आदि शब्दों से पुकारा जाता है तथा जहां के गांवों मे धूपों, बूची, दम्मो, गेंदा, सत्तों जैसे नाम प्राय: सुनने को मिलते है। कल्लो का नामकरण भी उसकी दादी ने ही किया था , क्योंकि परिवार में शायद सबसे अधिक श्यामवर्ण उसका ही था । अब पंडित तो नामकरण बाद में करता, मगर दादी ने तो उसे पहली नजर में देखते ही कल्लो नाम से नवाजा।
नववर्ष अपनी दस्तक दे चुका था । आज शर्मा जी के घर में कुछ विशेष ही चहल -पहल थी, कल्लों भी हमेशा की तरह आज भी सूर्य- नमस्कार करने छत पर पहुँची, तभी मेरी नजर उस पर पड़ी। उसकी छोटी बहन ने पीछे से आकर उसे अपने आगोश में ले लिया और बोली -' दीदी, सूर्यदेव ने तुम्हारा शायद सुन ली है और आज यह मीठी खबर मैं बिना मुँह मीठा किए नहीं बताने वाली।' छुटकी को अचानक अपने पीछे देख कल्लो जिसका वास्तविक नाम रजनी है कुछ सकपका गई और इसी हड़बड़ाहट में वह नीचे की ओर भागी। तभी मुझे कुछ गिरने की आवाज सुनाई दी और पंडिताइन का स्वर भी सुनाई पड़ा, कहॉ भागी जा रही है, बड़ी मुश्किल से तो एक बाल्टी भर पाई थी वह भी लुढ़का दी । न जाने कब अक्ल आएगी इस कल्लो को ।
बाल्टी की आवाज सुन छुटकी भी नीचे आ गई थी, बाल्टी से बिखरा पानी देख वह भी सकपका गई थी और फिर उसके मन में एक आशंका जाग उठी कि कहीं इस वर्ष भी तो मेरी दीदी के सपने इस पानी की तरह कही बिखर तो न जाएँगे ।
अपने माता-पिता की ज्येष्ठ पुत्री होने के कारण रजनी को कुछ अधिक ही स्नेह प्राप्त हुआ था, खासकर अपने पापा की दुलारी थी । जब कभी अपनी दादी के कल्लो संबोधन से वह खीज जाती थी तो उसके पापा ही उसे यह कहकर सांत्वना देते थे कि दादी की बात का बुरा नहीं मानते अगर वह तुझे कल्लो कहती है तो मुझे भी तो कलुआ कहती है । रजनी बचपन से ही प्रतिभाशाली थी, पहली कक्षा से लेकर एम.काम. तक सभी परीक्षाएं उसने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । यद्यपि रजनी श्यामवर्ण की थी, मगर उसका मन दूध की तरह निर्मल था ।
एक दिन तो हद ही हो गई थी । कॉलेज के मनचले छात्रों ने उसके रंग को लेकर रजनी का भरपूर मजाक उड़ाया । वह कर भी क्या कर सकती थी, खिसियाकर कॉलेज से घर लौट आई। उसके पिता ने जब रजनी की ऐसी हालत देखी तो उन्होंने उसकी उदासी का कारण जानना चाहा। आखिर रजनी के धैर्य का बांध टूट ही गया । '' पापा मुझे अब अच्छी तरह मालूम हो गया है कि दुनिया में कवल गोरे रंग का ही मूल्य है, श्यामवर्ण तो लगता है अब मेरे लिए अभिशाप बन गया है। मैं ठीक कह रही हूं न -पापा। ''बेटा लगता है निराशा ने तेरे अंदर घर बना लिया है ।''
'' अब तू मेरी बातें ध्यान से सुन और इन्हें गांठ में अच्छी तरह बांध ले । क्या तू नहीं जानती कृष्ण भी तो श्यामवर्ण के थे और उनका तो नाम भी श्यामसुंदर है, क्या तू नहीं जानती कि उनके रूप पर कितनी गोपियां मोहित थी और यह भी तो सच है कि शंकर भी विष पीकर ही नीलकंठ बने। मेरा कहने का अर्थ महज इतना ही है कि कृष्ण अपने गुणों से श्यामसुंदर बने और नीलकंठ मंगलकारी । इसी प्रकार मनुष्य को अपने रुप से नहीं गुणों से श्रेष्ठ बनना चाहिए, क्या तू नहीं जानती मनुष्य अपनी सूरत से नहीं सीरत से पहचाना जाता है।
अपने पिता के शब्दों को सुन रजनी उनके गले से लिपट गई और बोली:-'' पापा आपने मेरी आंखें खोल दी है, हृदय के सौंदर्य को सर्वश्रेष्ठ माने वाले अपने पापा पर मुझे गर्व है ।
बी0काम0 के पश्चात् रजनी अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, मगर उसकी मां की इच्छा थी कि अब उसके हाथ पीले कर दिए जाए , मगर हमेशा की तरह इस बार भी उसके पापा ने उसका साथ दिया और फिर देखते ही देखते रजनी ने एम.काम. भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया। अपने पापा से जिद करके वह शोध कार्य में जुट गई ।
बेटी को सयानी होती देख शर्मा जी को भी बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी,योग्य वर के लिए उन्होंने इसकी चर्चा रिश्तेदारी एवं मित्रों से भी की, मगर हर जगह से निराशा ही हाथ लगी ।
आखिर उन्होंने रजनी के विवाह के लिए अखबार में विज्ञापन दे ही दिया।
विज्ञापन के परिणामस्वरूप कुछ प्रस्ताव भी प्राप्त हुए, मगर कहीं लड़के की षिक्षा कम होती तो कहीं दहेज की फरमाइश । रुढ़िवादी तथा ग्रामीण परिवेष में पले-बढ़े शर्मा जी अपनी बेटी का विवाह जाति में ही तथा सुसंस्कृत परिवार में करना चाहते थे । उनकी स्पष्ट धारणा थी कि बेमेल के विवाह कभी सफल नहीं हो सकते तथा बेटी की इच्छा के विपरीत विवाह करने पर वह जीवन भर उन्हें माफ नहीं करेगी।
आखिर दौड़-धूप रंग लाई, कानपुर से एक विवाह का प्रस्ताव शर्मा जी को प्राप्त हुआ, शर्मा जी ने भी उचित जांच-परख के बाद प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और आखिर वह दिन भी आ ही गया जब रजनी को देखने के लिए वर एवं उसके माता-पिता आ रहे थे। रजनी की मां को तो आज खुशी के मारे पैर भी जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। अतिथियों के स्वागत के लिए उन्होंने न जाने कितने तरह के पकवान तैयार किए।
बार-बार उनकी निगाह द्वार पर चली जाती और फिर रजनी पर निगाह पड़ते ही वह चौंकी - '' तू अभी तक तैयार नहीं हुई, अब मुझे क्या देख रही है - जा तैयार हो और हां - आज तू वही बनारसी साड़ी पहनना गोटे-वाली और पलंग पर जो जेवर रखे है, उन्हें भी पहन लेना ।
'' मां तू चिंता मत कर - छुटकी ने कहा ।
'' आज - दीदी को मै ऐसा सजाऊंगी कि चांद भी शरमा जाए ''
आखिर रजनी के सब्र का बांध टूट ही गया मां कब तक इस तरह तुम मेरी नुमाइष लगाओगी, ''मै जैसी हूं वैसी ही उनके सामने जाऊंगी । वे सजी-सजाई गुड़िया खरीदने आ रहे है या लड़की देखने ? मॉ-बेटी का द्वन्द्व सुन शर्मा जी आखिर बोल ही पड़े -
- '' लगता है मां-बेटी का महाभारत फिर शुरू हो गया है । ''
- '' अब तुम्हीं संभालो अपनी लाड़ली को, बहुत सिर चढ़ा रखा है ?''
द्वार पर कार की आवाज सुन घर के सभी मेहमानों के स्वागत के लिए दौड़ पड़े । घर के मुखिया शर्मा जी ने सभी अतिथियों का स्वागत गर्मजोशी के साथ किया। कुशलक्षेम तथा परिचय प्राप्ति के पश्चात बेटी रजनी को भी बुलाया गया। रजनी मेहमानों के लिए नाश्ता लेकर अपनी छोटी बहिन के साथ पहुंची। रजनी पर नजर पड़ते ही विजन ने अपने पिता के कान में कुछ कहा और उसके पिता ने शर्मा जी से कहा कि वे पत्र द्वारा अपने निर्णय से अवगत करा देगें ।
समय बीता तथा लगभग एक माह के पश्चात् एक पत्र आया जिसमें लिखा था कि लड़की के श्यामवर्ण के कारण वे रिश्ता करने में असमर्थ है, अगर छोटी लड़की के साथ विवाह का प्रस्ताव हो तो विचार किया जा सकता है।
पत्र क्या आया, शर्मा जी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया । बेटी के स्वप्नों के महल धराशायी होते देख उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया । अपने पिता की हालत देख रजनी बोली '' पापा आप निराश न हों, यह तो होना ही था, मैं तो पहले ही जानती थी कि एक सांवले लड़के का विवाह तो गोरी लड़की से हो सकता है, मगर एक सांवली लड़की का विवाह गोरे लड़के के साथ शायद संभव नहीं '' आप हिम्मत न हारे पापा, आपके स्वप्न साकार होंगे, यह मेरा आपसे वायदा है ।
शर्मा जी ने तो ऐसा बिस्तर पकड़ा कि फिर कभी न उठ सके ।
पिता के आशीर्वाद तथा उसकी प्रतिभा ने रजनी को उसके मुकाम पर पहुंचा ही दिया। अब इसे विधि की विडम्बना कहे या कुछ और कि रजनी को नौकरी भी उसी विभाग में मिली जहां विजय कार्यरत था ।
समय का चक्र तेजी से चल रहा था, एक दिन संध्या पहर लिफ्ट में रजनी ने विजय को देखा । आत्मग्लानि से भरा विजय रजनी से बात करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था, मगर रजनी ने फिर भी उसका हालचाल पूछ अपने कार्यालय की ओर बढ़ गई । आखिर अपनी उपेक्षा से विजय तिलमिला उठा, किसी तरह हिम्मत जुटाकर वह रजनी के केबिन में जा पहुंचा ।
रजनी ने शालीनता का परिचय देते हुए उसे बैठने को कहा । '' रजनी मैं आपका गुनहगार हू, ईश्वर ने मुझे अपने किए कि सजा दे दी है, मैं जान चुका हूं कि आंतरिक सौंदर्य के आगे वाह्य सौंदर्य कुछ भी नहीं , जिसे मैंने हीरा समझा था वह तो कांच का एक टुकड़ा निकला जो एक छोटी सी ठोकर से टूटकर बिखर गया । घमंडी बाप की लाड़ली जिसे अपने रुप पर घमंड था, आखिर मुझे छोड़ अपने बाप के पास चली गई और भिजवा दिए तलाक के काग़ज़ात।
मुझे जिंदगी भर इसका मलाल रहेगा कि मैं असली हीरे को न पहचान सका, अगर इजाजत हो तो मैं अब भी तुमसे........................................................
विजय की व्यथा सुन रजनी की आंखों में आंसू आ गए उसे लगा कि उसके पापा उसके सामने आ पूछ रहे है - '' बेटा रजनी कौन सा रंग मूल्यवान है ? ''
तभी विजय के सम्बोधन से रजनी की तन्द्रा भंग हुई । आपने क्या निर्णय लिया मैडम?
'' विजय तुम्हारे साथ जो कुछ हुआ वह निश्चय ही खेदजनक है मगर तुम अब मेरी बात ध्यान से सुनो- '' धनुष से निकला हुआ तीर, मुख से निकले वचन तथा बीता हुआ समय कभी वापिस नहीं आते । मेरी शादी तय हो चुकी है और हां उसका निमंत्रण भी तुम्हें मिल जाएगा ।